मेरे मन के किनारो पे

मेरे मन के किनारो पे कभी कोई तो उतरा होगा
यू ही नही पतवारों का एक जोड़ा पड़ा है

उसने यही कही तो कश्ती बांधी होगी अपनी
शायद उसी का ये घाव थोड़ा गहरा पड़ा है

जो उसने रात को ठंड से बचने को आग जलाई होगी
तभी तो यादों का ये ढेर सा जमा पड़ा है

जो रात में जलती आग में उसकी आंखे चम-चमाई होगी
शायद उसी की स्याही में डूबा दिल का हर पन्ना पड़ा है

कुछ रोज़ तो बिता जाता वो इन किनारों पे
नही बिताये, इसलिये तो बुझा मन का हर ज़रा पड़ा है

की अब वीरान है मेरे दरिया के किनारे
बस पतवारों के सहारे, यादो का दर-दरीचा खड़ा है

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