वो इक रोज़ आज भी आया था
आज जब मैं लिखने बैठा
उसका हमसाया पीछे खड़ा पाया था
वादा था जिस रोज़ से जीने का
वो इक रोज़ आज भी आया था
कुछ किश्तों का कर रहा था हिसाब
तन्खाह ने जो आज मुँह दिखाया था
पिछले महीने के जब निपटाये लेनदार
तो जाना, ब्याज ही का भुगतान कर पाया था
वो खड़ा रहा मेरे दरवाज़े पे
जैसे उसका भी कुछ बकाया था
वादा था जिस रोज़ से जीने का
वो इक रोज़ आज भी आया था
वो जो हल्के हुआ करते थे मेरे कंधे
अब ज़िमेदारियो ने बोझ बढ़ाया था
बैठ वरांडे देख रहा मैं
कई कामो ने शितिज पे विद्रोह उठाया था
बहती नाक, छोटी निकर और पतंग लीये
वो आज फिर मुस्कुराया था
वादा था जिस रोज़ से जीने का
वो इक रोज़ आज भी आया था
सोचता हु सब कल से करूँगा
अभी आज चूल्हा भी तोह चलाना था
घर जो जरूरतों के संदूक पड़े है
उनका ताला भी तो तुड़वाना था
उसके हाथो में सपनो की थी फेहरिस्त
जिसे मेरे संग फ्रेम में उसने जड़वाना था
वादा था जिस रोज़ से जीने का
वो इक रोज़ आज भी आया था
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