वो दरवाज़ा खुला रखती है
वो दरवाज़ा खुला रखती है, ये सोच कर
न जाने किस वक़्त ये जंग खत्म हो जाए
वो रोटियाँ दो ज़्यादा सेकती है, ये सोच कर
की न जाने कब भीची मुठिया ये खुल जाए
वो पोछा मार के रखती है वरांडे में
न जाने कब फौजी बूट उसपे पड जाए
वो पड़ोसी के दरवाज़े की आवाज़ से सिहर उठती है
की न जाने कब दर उसके पे दस्तक हुज़ूर हो जाए
वो अकेली घर में उठ के घूम लेती है
जैसे सन्नाटों में कोई माँ बोले, और उसे सुन जाए
की जंग तो बीते साल ही खत्म हो गयी थी
कोई बस इतना करे, की उसका बेटा उसको लौटा जाए
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