रेशम की तारे...

रेशम की तारे जब सिना घोप देती है पर्दो का
छोड़ के सिलवटें उठ जाता हू, पोछ के सपनो का आईना गर्दो का

दो चाय की प्यालियों के सहारे हाल पूछ पाती है मेरी सुबह
कामगारों की कतारों का
मेज़ पे बैठे जब खिड़की से दिखती है दैनिक की लकीरे
तब अपनी 'ना' तले मुँह दबता दिखता है ख्वाइशें हज़ारों का

उड़ते मन पर बेड़िया डाल जब चलता हु
लगता है हाल घर उजड़े मुहाजिरों का

दफन कर देता हु जब अपने सपनो के सब लिबास
फिर साथ खड़े हित्कारियो में दिखता है चेहरा मुजरिमो का

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