सस्ती लिखावट
अपनी सस्ती लिखावट में
दर्द जब मैं अपने लिख कर बैठा था
याद आ गयी वो नन्ही मैली हथेलियां
जिनका बिछौना दिन भर खैरात में लगा बैठा था
की सिर मेरा ढका हुआ
फिर भी मैं ज़िन्दगी की सिलवटों में छुपा बैठा था
उसकी रात न जाने किस तारे तले होगी
वो जो धूप में नंगे बदन की सूरज से शर्त लगा बैठा था
मेरे पास इतना है
न जाने मन और कितने की आस लगा बैठा था
वो जो भूख मिटाता है गीला कपड़ा बांध कर
न जाने कैसे उसका मन फिर आस किनारे बैठा था
मेरे सुनहरे तंग दरवाज़ों पे
कभी न संतोष आकर बैठा था
एक वो जिसके दरवाज़े नही
न जाने कैसे, बढ़े आराम से नींद के प्रहरी बैठा था
सहूलतें इतनी है मुझे
ज़िंदगी लूट न ले कही, यह भय मन में बैठा था
मुफलिसी में उसका चेहरा देखा आज मैंने
मानो वो ज़िन्दगी को लूटकर बैठा था
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