वो जो रेत का एक टीला हुआ करता था

वो जो रेत का एक टीला हुआ करता था
दोनो पहर और सुबह-शाम चमकीला हुआ करता था
यारी डाल बैठा वो हवा की बेटी पूर्वा से
आज ज़रे-ज़रे से गुमशुदा है, जो कभी काफिला हुआ करता था

रोका था मरूद्यान के उसके उन दोस्तो ने
एक तालाब और मुठी-भर खजुर के पेड़ो ने,
वो उगती रहती घास-फुस की सूखी तनियो ने
और वो अल्हड़ धूप की किरने,
जो चमकती थी संग उसके सुबह-शाम की घड़ियों में

समझाते उसको,
हवा की बेटी पूर्वा के, और भी है रुख और आयाम जो,
अनगिनित है गिनती उसकी ऋतुओ की और रहती जो खय्याम वो,
तेरी गिनती शुमार होती है उसकी फहर-लिस्ट में
जो पढ़ी जाती है सुबह की आयात से, और जारी रहती है शाम को

वो जो जुस्तजू जगाई है उसने तेरे सीने में
तू पहला नही, औरो के भी ऐसे उतारे है खंजर उसने सीने में
रखते थे जो ख्याल उसके अपने ज़हन में, उसने छीले है,
जैसे हो न कोई रब्त-ए-दिली उसके सीने में

न माना वो किसी की बात,
वो कल बन गया, जो कभी कल हुआ करता था
काफी शबे हो गई वो दिखा नही किसी को,
जो कभी नज़रे आम हुआ करता था
आज भी जब लोग गुज़रते है उस रस्ते से,
करके पूर्वा की बात, कहते है,
याद है,

वो जो रेत का एक टीला हुआ करता था
दोनो पहर और सुबह-शाम चमकीला हुआ करता था
यारी डाल बैठा वो हवा की बेटी पूर्वा से
आज ज़रे-ज़रे से गुमशुदा है, जो कभी काफिला हुआ करता था...

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