इक्क बकरी का मेमना

मेरा बचपन था इक्क बकरी का मेमना
वो जो खेल था, मैं खेलता,
लल्लस न थी, न थी लालसा,
जिसके संग कबूतरों के घरो का भेद था
वो था इक्क बकरी का मेमना

घुटनो के सिरहाने लगा के
उँगलियों का आदमी था दौड़ता
कूदता था, फुदकता था,
हर गहराई था वो नापता
उजले हर वो रंग तितलियों के
हथेलियों पे था संवारता
की वो ऊपर वाले आले से
रख कुर्सी, बिस्कुट भी था निकालता
दूध की वो मूछ को
शीशे में भी था निहारता
कोपलें बाजू लिये पतंग भी था जो लूटता
वो था वत्सल, इक्क बकरी का मेमना

लेकिन,
वो जो घर-घर की कहानी थी,
अलबत्ता, हमारे यहां काफी पुरानी थी
भोर, सवेर और सहर औरों की ज़ुबानी थी
हमारे दिये तले तो अमावास की निगरानी थी
पारा हल्का जान पड़े, इतनी हवा घर की भारी थी
बाहर सब कहते थे, सब ठीक है, सब ठीक है,
अंदर ही अंदर सब को घुटन की बीमारी थी

अब ज़रा रुकूँगा साहब और अंदर होकर आऊंगा
सफेद बुशर्ट पे दाग पड़े, आखिर थोड़ा तो छुपाउंगा
वो जो थोड़ी देर से आप आये है, नही तो गरम गोश्त खिलाता
मज़हब चाहे जो हो माझी का, बकरीद ज़रूर मनाता


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