बेबस बहुत है इंसा

बेबस बहुत है इंसा
घर की दीवारों और दरवाज़ों के बीच
ढूंढता हु दर दर मैं गुम को
शोर बहुत है मेरे कानो के बीच
कट-ती है नब्ज़ और बिखरते है बाल
चलती सुई के काँटों के बीच
अब आलम है, थक-सा जाता है बदन मेरा
सुबह और रात की करवटों के बीच
मायूसी का हल्का-हल्का आलम
उतर आया है दोनो बोहो के बीच
चला लेता हू कुछ कदम दिल को
अकसर बैठा मिलता है भीड़ में, सन्नाटों के बीच

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