मेरा दिल खानाबदोशों की बस्ती में
मेरा दिल खानाबदोशों की बस्ती में
एक और शाम जला आया आज
वो बैठने को ना कह दे, इस डर से
सारी बात खड़े पैर कर आया आज
उनके नरम थे सलीके,
और खुले थे शराफत के बटनों के काज
बेलिबास कब का कर चुका था वो मुझे
जो तब थी ना कोई शर्म, तो आज काहे की कोई लाज
वो तकता रहा मेरे समंदर को,
मानो आगे कम हो उसकी आंखों की साज
मुझे भी वो शामिल कर लेता ज़िन्दगी में, तो क्या जाता उसका
जहा कहता वो मैं भीछ जाता, रख के एक तरफ अपने सिर का ताज
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